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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/८५

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कपालकुण्डला
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हुई। सिर्फ प्यास दिन-पर-दिन बढ़ती जाती है। चेष्टा करूँ, तो और भी सम्पदा, और भी ऐश्वर्य लाभ कर सकती हूँ, लेकिन किसलिए? इन सबमें सुख होता तो क्यों एक दिनके लिए भी सुखी न होती? यह सुखकी इच्छा पहाड़ी नदीकी तरह है—पहले एक निर्मल पतली धार जंगलसे बाहर होती है, अपने गर्भमें आप ही छिपी रहती है, कोई जानता भी नहीं, अपने ही कल-कल करती है, कोई सुनता भी नहीं, क्रमशः जितना आगे बढ़ती है, उतनी ही बढ़ती है—लेकिन उतनी ही पंकिल होती हैं। केवल इतना ही नहीं कभी वायुका झकोरा पा लहरें मारती है—उसमें हिंस्र जीवोंका निवास हो जाता है। जब शरीर और बढ़ता हैं, तो कीचड़ और भी मिलता है—जल गंदला होता है, खारा हो जाता है; असंख्य ऊसर और रेत उसके हृदयमें समा जाता है; वेग मंद पड़ जाता है। इसके बाद वह वृहत् रूप—गंदा रूप—सागरमें जाकर क्यों विलीन हो जाता है, कौन बता सकता है?”

पे०—“मैं यह सब तो कुछ भी नहीं समझ पाती। लेकिन यह सब तुम्हें अच्छा क्यों नहीं मालूम पड़ता?”

लु०—“क्यों अच्छा नहीं मालूम पड़ता, यह इतने दिनोंके बाद अब समझ सकी हूँ। तीन वर्षों तक शाही महलकी छायामें बैठकर जो सुख प्राप्त नहीं हुआ, उड़ीसासे लौटनेके समय बादमें एक रातमें वह सुख मिला। इसीसे समझी!”

पे०—“क्या समझी?”

लु०—“मैं इतने दिनोंतक हिन्दुओंकी देव-मूर्तिकी तरह रही। नाना स्वर्ण और रत्न आदिसे लदी हुई, भीतरसे पत्थर। इन्द्रियसुखकी खोजमें आगके बीच घूमती रही, लेकिन अग्निका स्पर्श कभी नहीं किया। अब एक बार देखना है, शायद पत्थरके अन्दरसे कोई रक्तवाही शिरा हृदयमें मिल जाये।”