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तृतीय खण्ड
 

कि जो मानसिक कर्म जितनी बार अधिक किया जाये, उस कर्ममें उतनी ही अधिक प्रवृत्ति होती है; वह कर्म क्रमशः स्वभाव सिद्ध हो जाता है; लुत्फुन्निसा उस मूर्तिकी रात-दिन याद करने लगी। इससे दारुण दर्शनकी अभिलाषा उत्पन्न हुई। साथ ही साथ उसकी सहज स्पृहाका प्रवाह भी दुर्निवार्य हो उठा। दिल्लीकी सिंहासनलिप्सा भी उसके आगे तुच्छ जान पड़ी। मानों सिंहासन मन्मथशरजालसम्भूत अग्निशिखासे घिरा हुआ जान पड़ने लगा। राज्य, राजधानी राजसिंहासन सबका विसर्जन कर वह प्रिय-मिलनके लिए दौड़ पड़ी। वह प्रियजन नवकुमार है।

इसलिए लुत्फुन्निसा मेहरुन्निसाकी आशानाशिनी बात सुन कर भी दुखी हुई न थी। इसलिए आगरे पहुँच कर सम्पद-रक्षाकी भी उसे परवाह नहीं रही, इसीलिए उसने जीवन-पर्यन्तके लिए बादशाह से बिदा ली।

लुत्फुन्निसा सप्तग्राम में आई। राजपथसे निकट ही नगरीके बीचमें एक अट्टालिकामें उसने अपना डेरा डाला। राजपथके पथिकोंने देखा कि एकाएक वह अट्टालिका जरदोजी और किमखाबकी पोशाकोंसे सजे दास-दासियोंसे भर गई। हर कमरेकी शोभा हरम जैसी निराली थी। सुगन्धित वस्तुएँ, गुलाब, खस, केशर, कपूरादिसे सारा प्रांगण भर गया है। स्वर्ण, रौप्य, हाथीदाँत आदिके सामानोंसे मकान अपूर्व शोभा पाने लगा। ऐसे ही एक सजे हुए कमरेमें लुत्फुन्निसा अधोवदन बैठी हुई है। एक अलग आसन पर नवकुमार बैठे हुए हैं। सप्तग्राममें लुत्फुन्निसासे नवकुमारकी दो-एक बार और मुलाकात हो चुकी है। इन मुलाकातोंसे लुत्फुन्निसाका मनोरथ कहाँ तक सिद्ध हुआ है, वह इस वार्तासे ही प्रकट होगा।

कुछ देर तक चुप रहनेके बाद नवकुमारने कहा—“अब मैं जाता हूँ। फिर तुम मुझे न बुलाना।”