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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/८७

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चरणोंमें

“काय मनः प्राण आमि संदिब तोमारे।
भुञ्ज आसि राजयोग दासीर आलये॥”
—वीराङ्गना काव्य

खेतमें बीज बो देनेसे आप ही उगता है। जब अंकुर पैदा होता है, तो न कोई जान पाता है न देख पाता है। लेकिन एक बार बीजके बो जानेपर बोने वाला चाहे कहीं भी रहे; वह अंकुर बढ़कर वृक्ष बनकर मस्तक ऊँचा करता है। अभी वह वृक्ष केवल एक अंगुल मात्रका है, तो देखकर भी देख नहीं सकता। क्रमशः तिल-तिल बढ़ रहा है। इसके बाद वह वृक्ष आधा हाथ, फिर एक हाथ, दो हाथ तक बढ़ा। फिर भी, उसमें यदि किसीका स्वार्थ न रहा तो उसे देखकर भी ख्याल नहीं करता। दिन बीतता है, महीने बीतते हैं, वर्ष बीतते हैं, इससे ऊपर दृष्टि जाती है। फिर उपेक्षाकी तो बात ही नहीं रहती—क्रमशः वह वृक्ष बड़ा होता है, अपनी छायामें दूसरे वृक्षोंको नष्ट करता है—फिर और चाहिये क्या, खेतमें एक मात्र वही रह जाता है।

लुत्फुन्निसाका प्रणय इसी तरह बढ़ा था। पहले एक दिन अकस्मात् प्रणय-भाजनके साथ मुलाकात हुई, उस समय प्रणय-संचार विशेष रूपसे परिलक्षित न हुआ। लेकिन अंकुर उसी समय आ गया। लेकिन इसके बाद फिर मुलाकात न हुई। लेकिन बिना मुलाकात हुए ही बारम्बार वह चेहरा हृदयमें खिलने लगा, याददाश्तमें उस चेहरेकी याद करना सुख कर जान पड़ने लगा, अंकुर बढ़ा। मूर्तिके प्रति फिर अनुराग पैदा हुआ। चित्तका यही धर्म है