सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४
कबीर-ग्रंथावली

राम नाम जाण्यों नहीं, लागी मोटी षोड़ि ।
काया हाँडो काठ की , ना ऊँ चढै बहोड़ि ॥ ३१ ॥
राम नाम जाण्या नहीं, बात बिनंठो मूल ।
हरत इहां ही हारिया, परति पड़ी मुखि धूलि ॥ ३२ ॥
राम नाम जाण्यां नहीं, पाल्यो कटक कुटब।।
धंधा ही में मरि गया, बाहर हुई न बंब ॥ ३३ ॥
मनिषा जनम दुलभ है, देह न बार बार ।
तरवर थें फल झड़ि पड़या, बहुरि न लागै डार ॥ ३४ ॥
कबीर हरि की भगति करि, तजि बिषिया रस चोज ।
बार बार नहीं पाइए, मनिषा जन्म की मौज ।। ३५ ॥
कबीर यहु तन जात है, सकै तौ ठाहर लाइ ।
कै सेवा करि साध की , के गुण गोबिंद के गाइ ॥ ३६ ॥
कबीर यहु तन जात है, सके तो लहु बहोड़ि ।
नागे हाथ ते गये, जिनकै लाष करोड़ि ।। ३७ ।।
यहु तन काचा कुंभ है, चोट चहू दिसि खाइ ।
एक राम कं नाँव बिन, जदि तदि प्रलै जाइ ॥ ३८ ॥
(३२) ख० में इसके प्रागे ये दोह हैं-
गम नाम जाण्यां नहीं, मेल्या मनहि बिसारि ।
ते नर हाली बादरी, सदा पराए बारि ॥ ४२ ॥
राम नाम जाण्यां नहीं, ता मुखि श्रानहि भान ।
कै मूसा के कातरा, खातां गया जनम ।। ४३ ।।
राम नाम जाण्यों नहीं, हूवा बहुत अकाज ।
बूड़ा लैारे बापुड़ा, बड़ा बूटां की लाज ।। ४४ ॥
(३५) ख० में इसके आगे यह दोहा है-
पाणी ज्योर तलाब का, दह दिसि गया बिलाइ ।
यह सब याही जायगा, सकै तो ठाहर लाह ।। ४८ ।।
(३६) ख कै गोविंद का गुण गाइ।
(३७) ख-नागे पाऊ।