पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५
चितवणी कौ अंग

यहु तन काचा कुंभ है, लियां फिरै था साथि ।
ढबका लागा फूटि गया, कछू न पाया हाथि ।। ३ ।।
काँची कारी जिनिं करै, दिन दिन बधै बियाधि ।
राम कबीरै रुचि भई, याही ओषदि साधि ।। ४०॥
कबीर अपने जीवतै, ए दोइ बातें धोइ ।
लोभ बडाई कारण , अछता मूल न खाइ ।। ४१ ॥
खभा ऐक गईद दोइ, क्यू करि बंधिसि बारि ।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव ती मानि निवारि ॥ ४२ ॥
दीन गँवाया दुनी सौं, दुनी न चाली साथि ।
पाइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि ॥ ४३ ॥
यह तन तो सब बन भया, करंम भए कुहाडि ।
पाप आप कू काटिहैं, कहै कबीर बिचारि ॥ ४४ ॥
कुल खोयाँ कुल ऊबरै, कुल राख्याँ कुल जाइ ।
राम निकुल कुल में टि लै, सब कुल रह्या समाइ ॥ ४५ ॥
दुनियां के धोखै मुवा, चलै जु कुल की कांणि ।
तब कुल किसका लाजसी, जब ले घरया मसांणि ॥ ४६ ।
दुनियां भाँडा दुख का, भरी मुहांमुह भूष ।
अदया अलह राम की, कुरहै ऊंणी कूष ।। ४७ ॥
जिहि जेवड़ी जग बंधिया, तू जिनि बँधै कबीर ।
ह्व सी प्राटा लूंण ज्यू, सोना सँवाँ सरीर ॥ ४८ ॥
(३६) ख० में इसके आगे यह दोहा है-
यह तन काचा कुंभ है, माहि किया ढिग बास ।
कबीर नैंण निहारिया, तो नहीं जीवण की प्रास ॥ १२ ॥
(४६) ख-का को लाजसी।
(४७) इसके आगे ख. में यह दोहा है-
दुनियाँ कै मैं कुछ नहीं, मेरे दुनी अकथ ।
साहिब दरि देवों खड़ा, सब दुनिया दोजग जंत ॥६॥