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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१२७

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भ्रम बिधासण कौ अंग ४३

जोरी कीयां जुलम है,मांगै न्याव खुदाइ ।
खालिक दरि खूनी खड़ा,मार मुहे मुहिं खाइ ।। ६॥
साई सेती चोरियां,चोरा सेती गुझ ।
जांणैंगा रे जीवड़ा,मार पड़ैगी तुझ ॥ १० ॥
सेष सबूरी बाहिरा,क्या हज काबै जाइ ।
जिनकी दिल स्याषति नहीं,तिनकौं कहां खुदाइ ॥ ११ ॥
खुब खांड़ है खीचड़ी,मांहि पड़ै टुक लूंण ।
पेड़ा रोटी खाइ करि,गला कटावै कौंण ॥ १२ ॥
पापी पूजा बैसि करि,भषैं मांस मद दोइ ।
तिनकी दव्या मुकति नहीं,कोटि नरक फल होइ ॥ १३ ॥
सकल बरण इकत्र है,सकति पूजि मिलि खांहि ।
हरि दासनि की भ्रांति करि,केवल जमपुरि जांहि ॥ १४ ।।
कबीर लज्या लोक की,सुमिरै नांहीं साच ।
जानि बूझि कंचन तजै,काठा पकड़ै काच ॥ १५ ।।
कबीर जिनि जिनि जांथियां,करता केवल सार ।
सो प्राणीं काहे चलै,झूठे जग की लार ॥ १६ ॥
झूठे कौं झूठा मिलै,दूणां बधै सनेह ।
झूठे कूं साचा मिलै,तब ही तूटै नेह ।। १७ ।। ४२५ ॥

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(२३) भ्रम बिधामण को अंग

पाहण केरा पूतला,करि पूजैं करतार ।
इंही भरोसै जे रहे,ते बुडे काली धार ॥ १ ॥
काजल केरी कोठरी,मसि के कर्म कपाट ।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बाट ।। २ ।।