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कबीर-ग्रंथावली

सहज सहज सबको कहै,सहज न चीन्हें कोइ ।
पाँचू राखै परसती,सहज कहींजै सोइ ॥ २ ॥
सहजैं सहजैं सब गए,सुत बित कामणि कांम ।
एकमेक है मिलि रह्या,दासि कबीरा रांम ॥ ३ ॥
सहज सहज सबको कहै,सहज न चीन्हैं कोइ ।
जिन्ह सहजैं हरिजी मिलै,सहज कहीजै सोइ ।। ४ ।। ४०८॥

(२२) साच को अंग
कबीर पूंजी साह की,तूं जिनि खोवै ष्वार ।
खरी बिगूचनि होइगी,लेखा देती बार ॥ १ ॥
लेखा देणां सोहरा,जे दिल साँचा होइ ।
उस चंगे दीवांन मैं,पला न पकड़ै कोइ ।। २ ॥
कबीर चित चम किया,किया पयाना दूरि ।
काइथि कागद काढिया,तब दरिगह लेखा पुरि ॥ ३ ॥
काइथि कागद काढिया,तब लेखै वार न पार ।
जब लग सांस सरीर मैं,तब लग रांम संभार ।। ४ ॥
यहु सब झूठी बंदिगी,बरियां पंच निवाज ।
साचै मारै झूठ पढि,काजी करै प्रकाज ॥ ५॥ .
कबीर काजी स्वादि बसि,ब्रह्म हतै तब दोइ ।
चढि मसीति एकै कहै,दरि क्यूं साचा होइ ।। ६ ।।
काजी मुलां भ्रंमियां,चल्या दुनीं कै साथि ।
दिल थैं दींन बिसारिया,करद लई जब हाथि ।। ७ ।।
जोरी करि जिबहै करैं,कहते हैं ज हलाल ।
जब दफतर देखैगा दई,तब द्वैगा कौंण हवाल ॥८॥