वरे आ गए हैं जिनको बदल देने से भाव तथा शैली में परिवर्तन हो
जाता है। यह विषय विचारणीय है। मेरी समझ में कबीरदासजी
की वाणी में जो पंजावापन देख पड़ता है उसका कारण उनका पंजाबो
साधुओं से संसर्ग ही मानना समीचीन होगा।
इस संस्करण के साथ कबीरदासजी के दो चित्र प्रकाशित किए जाते
हैं, एक तो कलकत्ता म्यूजियम से प्राप्त हुआ है और दूसरा कबीरपंथी
स्वामी युगलानंदजी से मिला है। दोनों में से किसी चित्र का कोई
ऐसा प्रामाणिक इतिहास नहीं मिला जिसकी कुछ जाँच की ना सकती
पर जहाँ तक मैं समझता हूँ, वृद्धावस्था का चित्र हो जो कबोरपंथी साधु
युगलानंदजी से प्राप्त हुआ है अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है।
इस ग्रंथ का परिशिष्ट प्रस्तुत करने में मेरे छात्र पंडित अयोध्या-
नाथ शर्मा एम० ए० ने बड़ा परिश्रम किया है । यदि वे यह कार्य न
करते तो मुझे बहुत कुछ कठिनता का सामना करना पड़ता। इसी
प्रकार प्रस्तावमा के लिए सामग्रो एकत्र करने और उसे व्यवस्थित रूप
देने में मेरे दूसरे छात्र पंडित पीतांबरदत्त बडथवाल एम० ए० ने मेरी
जो सहायता की है वह बहुत ही अमूल्य है। सच बात तो यह है कि
यदि मेरे ये दोनों प्रिय छात्र इस प्रकार मेरी सहायता न करते, तो
अभी इस संस्करण के प्रकाशित होने में और भी अधिक समय लग
जाता। इस सहायता के लिये मैं इन दोनों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट
करता हूँ। इनके अतिरिक्त और भी दो तीन विद्यार्थियों ने मेरी सहा-
यता करने में कुछ कुछ तत्परता दिखाई पर किसी का तो काम ही पूरा
न उतरा, किसी ने टाल मटूल कर दी और किसी ने कुछ कर करा-
कर अपने सिर से वला टाली । अस्तु, सभी ने कुछ न कुछ करने का
उद्योग किया और मैं उन सबके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
काशी
• श्यामसुंदरदास
ज्येष्ठ कृष्ण १३, १९८५
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१३
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