पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१२

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इस संस्करण में कबीरदासजी के जो दोहे और पद सम्मिलित किए गए हैं, उन्हें मैंने अाजकल की प्रचलित परिपाटी के अनुसार खराद पर चढ़ाकर सुडौल, सुंदर और पिंगल के नियमों से शुद्ध बनाने का कोई उद्योग नहीं किया । वरन मेरा उद्देश्य यही रहा है कि हस्त- लिखित प्रतियों या ग्रंथ-साहब में जो पाठ मिलता है, वही ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया जाय। कबीरदासजी के पूर्व के किसी भक्त की वाणी नहीं मिलती। हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल की समाप्ति पर मध्यकाल का आरंभ कबीरदासजी से होता है; प्रत-एव इस काल के वे श्रादि कवि हैं। उस समय भाषा का रूप परि.मार्जित और संस्कृत नहीं हुआ था। तिस पर कबीरदासजी स्वयं्पढ़े लिखे नहीं थे। उन्होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी प्रतिभा तथा भावुकता के वशीभूत होकर कहा है। उनमें कवित्व उतना नहीं था जितनी भक्ति और भावुकता थी। उनकी अटपट वाणी हृदय में चुभने- वाली है। अतएव उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर देना ही उचित जान पड़ा और यही किया भी गया है। हाँ जहाँ मुझे स्पष्ट लिपि- दोष देख पड़ा, वहाँ मैंने सुधार दिया है; और वह भी कम से कम उतना ही जितना उचित और नितांत आवश्यक था ।


एक और वात विशेष ध्यान देने योग्य है। कबीरदासजी की भाषा में पंजाबीपन बहुत मिलता है। कबीरदास ने स्वयं कहा है कि मेरी बोली बनारसी है। इस अवस्था में पंजाबीपन कहाँ से आया ? ग्रंथ-साहन में कबीरदासजी की वाणी का जो संग्रह किया है, उसमें जो पंजाबीपन देख पड़ता है, उसका कारण तो स्पष्ट रूप से समझ में आ सकता है, पर मूल भाग में अथवा दोनो हस्तलिखित प्रतियों में जो पंजाकीपन देख पड़ता है, उसका कुछ कारण समझ में नहीं आता :वा तो यह लिपिकर्र्ता की कृपा का फल है अथवा पंजाबी साधुओं की संगति का प्रभाव है। कहीं कहीं तो स्पष्ट पंजाबी प्रयोग और मुहा-