पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१३३

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साध का अंग

काजल केरी कोठड़ी,तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की,पै सिर निकसणहार ॥ ८॥ ४७७ ॥

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(२७) असाध कौ अंग
कबीर भेष अतीत का,करतूति करै अपराध ।
बाहरि दोसै साध गति,मांहैं महा असाध ॥ १ ॥
उज्जल देखि न धोजिये,बग ज्यूं माँडै ध्यान ।
धोरै बैठि चपेटसी,यूं ले बूड़ै ग्यांन ॥ २ ॥
जेता मोठा बोलणां,तंता साध न जांणि ।
पहली थाह दिखाइ करि,ऊँडै देसी अांणिं ॥ ३ ।। ४८०

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(२८) साध कौ अंग
कबीर संगति साध की,कदे न निरफल हाइ।
चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ ॥ १ ॥
कबीर संगति साध की,बेगि करीजै जाइ ।
दुरमति दूरि गँवाइसी,देसी सुमति बताइ ॥ २ ॥
मथुरा जावै द्वारिका,भावै जावै जगनाथ ।
साध संगति हरि भगति बिन,कछू न आवै हाथ ॥ ३ ॥
मेरे संगी दोइ जणां,एक बैष्णों एक रांम ।
वो है दाता मुकति का,वो सुमिरावै नांम ॥ ४ ॥
कबीर बन बन मैं फिरा,कारणि अपणैं रांम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काम ॥ ५ ॥


( २७-३ ) ख.-तंता भगति न जांणि ।
( २८-४ ) ख-सुमिरावै रांम ।