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कबीर-ग्रंथावली

कबीर सोई दिन भला,जा दिन संत मिलांहिं ।
अंक भरे भरि भेंटिया,पाप संरीरौं जांहि ॥६॥
कबीर चंदन का बिड़ा,बैठ्या आक पलास ।
आप सरीखे करि लिए,जे होते उन पास ॥७॥
कबीर खाई कोट की,पांणी पिवै न कोइ ।
जाइ मिलै जब गंग-मैं,तब सब गंगोदिक होइ ॥८॥
जांनि बूझि साचहिं तजैं,करैं झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रांम जी,सुपिनैं हो जिनि देहु ।।६।।
कबीर तास मिलाइ,जास हियाली तूं बसै।
नहीं तर बेगि उठाइ,नित का गंजन को सहै ॥ १० ॥
केती लहरि समंद की,कत उपजै कत जाइ ।
बलिहारी ता दास की,उलटी मांहिं समाइ ॥ ११ ॥
काजल केरी कोठड़ी,काजल ही का कोट ।
बलिहारी ता दास की,जे ग्है रांम की ओट ।। १२ ।।
भगति हजारी कपड़ा,तामैं मल न समाइ ।
साषित काली काँबली,भावै तहां बिछाइ ॥ १३ ॥४६३॥

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( २८ ) साध साषीभूत कौ अंग


निरबैरी निह-कांमता,साई सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै,संतनि का अंग एह ॥ १ ।


( ११ ) इसके आगे ख०प्रति में ये दोहे हैं-
पंच बल धिया फिरि कड़ी,उझड़ ऊजड़ि जाइ।
बलिहारी ता दाम की,बबकि अणवै ठांइ ॥१२॥
काजल केरी कोठड़ी,तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की,पैसि जु निकसणहार ॥ १३ ॥