संत न छाडै संतई,जे कोटिक मिलें असंत।
चंदन भुवंगा बेठिया,तड सीतलता न तजंत ॥ २ ॥
कबीर हरि का भांवता,दुरैं थैं दीसंत ।
तन षोणां मन उनमनां,जग रूठड़ा फिरंत ॥ ३ ॥
कबीर हरि का भांवता,झीणां पंजर तास ।
रैणि न पावै नींदड़ी,अंगि न चढ़ई मास ।। ४ ॥
अणरता सुख सोवणां,रातै नींद न आइ ।
ज्यूं जल टुटै मंछली,यूं बेलंत बिहाइ ।। ५ ।।
जिन्य कुछ जांण्यां नहीं,तिन्ह सुख नींदड़ी बिहाइ ।
मैंर अबूझी बूझिया,पूरी पड़ी बलाइ ॥ ६ ॥
जांण भगत का नित मरण,अण-जांणें का राज ।
सर अपसर समझै नहीं,पेट भरण सूं काज ।। ७ ॥
जिहि घटि जांण बिनाण है,तिहिं घटि आवटणां घणां ।
बिन षंडै संग्रांम है,नित उठि मन सौं झूझणां ॥८॥
रांम बियोगी तन विकल,ताहि न चीन्हें कोइ ।
तंबोली के पांन ज्यूं,दिन दिन पीला होइ ॥ ६ ॥
पीलक दौड़ी सांइयां,लोग कहै पिड रोग ।
छांनै लंघण नित करै,राम पियारे जोग ॥ १०॥ .
काम मिलावै रांम कूं,जे कोई जांणै राषि।
कबीर बिचारा क्या करै,जाकी सुखदेव बोलैं साषि ॥ ११ ॥
कांमणि अंग बिरकत भया,रत भया हरि नांइ ।
साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि मांहिं ॥ १२ ॥
( ४ ) ख०-अंगनि बाढै घास ।
( ५ ) ख०-तलफत रैंण बिहाइ ।
( १२ ) ख०-सिध भए कलि मांहिं।