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मधि कौ अंग'

जिहिं घरिसाध न पूजिये,हरि की सेवा नांहि ।
ते घर मड़हट सारषे,भूत बसै तिन मांहिं ॥ ३ ॥
है गै गैंवर सघन घन,छत्र धजा फरराइ ।
ता सुख थैं भिष्या भली,हरि सुमिरत दिन जाइ ॥ ४ ॥
है गै गैंवर सघन घन,छत्रपती की नारि ।
तास पटंतर नां तुलै,हरिजन की पनिहारि ॥ ५ ॥
क्यूं नृप नारी नींदयं,क्यूं पनिहारी कौं मांन ।
वा मांग संवारै पीव कौं,वा नित उठि सुमिरै रांम ॥ ६ ॥
कबीर धनि ते सुंदरी,जिनि जाया बैसनौं पूत ।
रांम सुमरि निरभै हुवा,सब जग गया अऊत ।। ७ ।।
कबीर कुल तो सो भला,जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न ऊपजै,सो कुल पाक पलास ॥ ८॥
साषत बांभण मति मिलै,बैसनौं मिलै चंडाल ।
अंक माल दे भेटिये,मानौं मिले गोपाल ॥ ६ ॥
रांम जपत दालिद भला,टूटी घर की छांनि ।
ऊँचे मंदिर जालि दे,जहां भगति न सारंगपांनि ॥ १० ॥
कबीर भया है केतकी,भवर भये सब दाम ।
जहां जहां भगति कबार की,तहां तहांक्षरांम निवास ॥११॥ ५२५॥

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(३१ ) मधि कौ अंग


कबीर मधि अंग जेको रहै,तो तिरत न लागै वार ।
दुहु दुहु अंग सूं लागि करि,डूबत है संमार ॥ १ ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि,एक अंग है लागि ।
यहु सीतल वहु तपति है,दोऊ कहिये आगि ।। २ ॥


(६ )'वा मांग' या 'वामांग' देानों पाठ हो सकता है।