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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१५१

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हेत प्रीति सनेह कौ अंग'

ऐसा कोई ना मिलै,सब बिधि देइ बताइ ।
सुनि मंडल मैं पुरिष एक,ताहि रहै ल्यौ लाइ ॥ ७ ॥
हम देखत जग जाते है,जग देखत हम जांह ।
ऐसा कोई नां मिलै,पकड़ि छुड़ावै बांह ॥ ८ ॥
तीनि सनेही बहु मिलैं,चौथै मिलै न कोइ ।
सबै पियारे रांम के,बैठे परबसि होइ ॥ ६ ॥
माया मिलै महोबंती,कूड़े आखै बैन ।
कोई घाइल बेध्या नां मिलै,साईं हंदा सैंण ॥ १० ॥
सारा सूरा बहु मिलै,घाइल मिलै न कोइ ।
घाइल ही घाइल मिलै,तब रांम भगति दिढ होइ ॥ ११ ॥
प्रेमीं ढूंढ़त मैं फिरौं,प्रेमी मिलै न कोइ ।
प्रेमीं की प्रेमीं मिलै,तब सब बिष अमृत होइ ॥ १२ ॥
हम घर जाल्या आपणां,लिया मुराड़ा हाथि ।
अब घर जालौं तास का,जे चले हमारे साथि ॥ १३ ॥ ६४८॥

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(४४) हेत प्रीति सनेह कौ अंग

कमोदनीं जलहरि बसै,चंदा बसे अकासि ।
जो जाही का भावता,सो ताही कै पास ॥ १ ॥


(११)ख-जब घाइल ही घाइल मिलै ।
(१२)ख०-जब प्रेंमी ही प्रेंमी मिलै।
(१३)इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
    जारै ईछू क्या नहीं,बूझि न कीया गौन ।
    भूलो भूल्या मिल्या,पंथ बतावै कौन ॥१५॥
    कबीर जानींदा बूझिया,मारग दिया बताइ ।
    चलता चलता तहां गया,जहां निरंजन राइ ॥५॥
 (१)ख०--जो जाही कै मन बसै।