कबीर गुर बसै बनारसी,सिष समंदा तीर ।
बिसारसा नहीं बीसरै,जे गुंण होइ सरीर ॥ २ ।।
जो है जाका भावता,जदि तदि मिलसी आइ ।
जाकौं तन मन सौंपिया,सो कबहूँ छाड़ि न जाइ ॥ ३ ॥
स्वामीं सेवक एक मत,मन ही मैं मिलि जाइ ।
चतुराई रीझै नहीं,रीझै मन के भाइ ।। ४ ।। ६५२ ॥
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(४५) सूरा तन को अंग
काइर हुवां न छूटिये,कछु सूरा तन साहि ।
भरम भलका दूरि करि,सुमिरण सेल संबाहि ॥ १ ॥
पूंणौं पड़या न छूटिया,सुणि रे जीव अबूझ ।
कबीर मरि मैदान में,करि इद्रयां सूं झूझ ।। २ ॥
कबीर सोई सूरिवां,मन सूं मांडै झूझ ।
पंच पयादा पांड़ि ले,दूरि करै सब दूज ।। ३ ।।
सूरा झूझै गिरद सुं,इक दिसि सूर न होइ ।
कबीर यौं बिन सूरिवां,भला न कहिसी कोइ ॥ ४ ॥
कबीर प्रारणि पैसि करि,पीछैं रहै सु सूर ।
सांईं सूं साचा भया,रहसी संदा हजूर ।। ५ ॥
गगन दमांमां बाजिया,पड़या निसांनैं घाव ।
खेत बुहारसा सूरिवैं,मुझ मरणे का चाव ॥ ६ ॥
कबीर मेरै संसा को नहीं,हरि र लागा हेत ।
कांम क्रोध सूं झूझणां,चौड़े मांडया खेत ।। ७ ॥
सूरै सार सँवाहिया,पहरसा सहज सँजोग ।
अब कै ग्यांन गयंद चढ़ि,खेत पड़न का जोग ॥८॥
(४५-१)ख०--पंच पयादा पकड़ि ले