सती पुकारै सलि चढ़ी,सुनि रे मींत मसांन ।
लोग बटाऊ चलि गये,हंम तुझ रहे निदांन ॥ ३३ ॥
सती बिचारी सत किया,काठौँ सेज बिछाइ ।
ले सुती पिव प्रापणां,चहु दिसि अगनि लगाइ ॥ ३४ ॥
सती सूरा तन साहि करि,तन मन कीया घांण ।
दिया महौला पीव कूं,तब मड़हट करै बषांण ॥ ३५ ॥
सती जलन कू नीकली,पीव का सुमरि सनेह ।
सबद सुनत जीव नीकल्या,भूलि गई सब देह ॥ ३६ ।।
सती जलन कूं नीकली,चित धरि एकबमेख ।
तन मन सौंप्या पीव कूं,तब अंतरि रही न रेख ॥ ३७॥
हैं। तोहि पूछौं हे सखो,जीवत क्यूं न मराइ ।
मूंवा पींछैं सत करै,जीवत क्यूं न कराइ ॥ ३८ ॥
कबीर प्रगट रांम कहि,छानैं रांम न गाइ।
फूस क जौड़ा दूरि करि,ज्यूं बहुरि न लागै लाइ ॥ ३६॥ .
कबीर हरि सबकूं भजै,हरि कूं भजै न कोइ ।
जब लग भास सरीर की,तब लग दास न होइ ॥ ४० ॥
प्राप संवारथ मेदनीं,भगत सवारथ दास ।
कबीरा रांम सवारथी,जिनि छाड़ी तन की आस ॥४१॥६६।।
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(४६) काल कौ अंग
झूठे सुख कौं सुख कहै,मानत है मन मोद ।
खलक चबीणां काल का,कुछ मुख मैं कुछ गोद ॥१॥
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ढोल दमांमा बाजिया,सबद सुषां सब कोइ।
जैसल देखि सती भजै,तौ दुहु कुल हासी होह ॥ ३२॥
(३७)ख० -जलन को नीसरी ।
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१५५
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काल कौ अंग