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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१५४

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कबीर-ग्रंथावली

प्रेम न खेतौं नींपजै,प्रेम न हाटि बिकाइ ।
राजा परजा जिस रुचै,सिर दे सो ले जाइ ॥ २१ ॥
सीस काटि पासंग दिया,जीव सरभरि लोन्ह ।
जाहि भावे सो पाइ ल्यौं,प्रेम प्राट हंम कीन्ह ।। २२ ।।
सूरै सीस उतारिया,छाड़ी तन की पास।
आगैं थैं हरि मुल किया,मावत देख्या दास ।। २३ ॥
भगति दुहेली राम की,नहिं कायर का कांम ।
सीस उतारै हाथि करि,सो लेसी हरि नांम ॥ २४ ।।
भगति दुहेली रांम की,जैसि खाँडे की धार ।
जे डोलै तौ कटि पड़ै,नहीं तो उतरै पार ।। २५ ।।
भगति दुहेली राम की,जैसि अगनि की झाल ।
डाकि पड़े ते ऊबरे,दाधे कौतिगहार ॥ २६ ।।
कबीर घोड़ा प्रेम का,चेतनि चढ़ि प्रसवार ।
ग्यांन षड़ग गहि काल सिरि,भली मचाई मार ॥ २७ ॥
कबीर हीरावण जिया,महंगे मोल अपार ।
हाड़ गला माटी गली,सिर साटै ब्यौहार ॥ २८ ।।
जेते तारे रैंणि के,तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै,तऊ न बिसारौं तुझ ॥ ६ ॥
जे हारसा तौ हरि सवाँ,जे जीत्या तो डाव ।
पारब्रह्म कूं सेवातां,जे सिर जाइ त जाव ।। ३० ।।
सिर साटै हरि सेविये,छाडि जीव की बांणि ।
जे सिर दीयां हरि मिलै,तब लग हांणि न जांणि ॥ ३१ ॥
टूटी बरत आकास थैं,कोइ न सकै झड़ झेल ।
साध सती अरु सूर का,अंणी अपिला खेल ॥ ३२ ॥

(३१)ख०-सिर साटै हरि पाइए ।
(३२)इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-