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कबीर-ग्रंथावली

बैलहि डांरि गूंनि घरि आई,कुत्ता कूं लै गई बिलाई ।
तलि करि साषा ऊपरि करि मूल,बहुत भाँति जड़ लागे फूल ॥
कहै कबीर या पद कौं बूझै,ताकू तीन्यू त्रिभुवन सूझे ।। ११ ।।

हरि के पारे बड़े पकाये,जिनि जारे तिनि षाये।
ग्यांन अचेत फिरैं नर लोई,ताथैं जनमि जनमि डहकाये ॥टेक।।
धौल मंदलिया बैलर बाबी,कऊवा ताल बजावै।
पहरि चोल नांगा दह नाचै,भैंसा निरति करावै ॥
स्यंघ बैठा पान कतरै,घूंस गिलौरा लावै ।
उंदरी बपुरी मंगल गावै,कछू एक आनंद सुनावै ॥
कहै कबीर सुनहुँ रे संतो गडरी परबत खावा ।
चकवा बैसि अंगारे निगलै,समंद अकासां धावा ॥ १२ ॥

चरषा जिनि जरै।
कातौंगी हजरी का सूत,नणद के भईया की सौं ।।टेक।।
जलि जाई थलि ऊपजी,आई नगर मैं आप ।
एक अचंभा देखिया,बिटिया जायौ बाप ॥
बावल मेरा ब्याह करि.बर उत्यम ले चाहि ।
जब लग बर पावै नहीं,तब लग तूं हों व्याहि ।।
सुबधी कै घरि लुषधी आयो,आन बहू कै भाइ।
चूल्है अगनि बताइ करि,फल सौ दोयौ ठठाइ ॥
सब जगही मरि जाइयौ,एक बढइया जिनि मरै ।
सब रांडनि कौ साथ चरपा को घरै ।।
कहै कबीर सो.पंडित ग्याता,जो या पदहि बिचारै।
पहलैं परचै गर मिलै,तौ पीछैं सतगर तारै ॥ १३ ।।