पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१७७

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पदावली

अब मोहि ले चलि नणद के बीर,अपनैं देसा ।
इन पंचनि मिलि लूटी हूँ,कुसंग आहि बदेसा ।। टेक ॥
गंग तीर मोरी खेती बारी,जमुन तीर खरिहानां ।
सातौं बिरही मेरे नीपजै,पंचूं मोर किसांनां ।।
कहै कबीर यहु अकथ कथा है,कहतां कहो न जाई ।
सहज भाइ जिहिं ऊपजै,ते रमि रहे समाई ॥ १४ ॥

अब हम सकल कुसल करि मांनां,
स्वांति भई तब गोव्यंद जांनां ।। टेक ।।
तन मैं होती कोटि उपाधि,उलटि भई सुख सहज समाधि ।।
जम थैं उल्लटि भया है राम, दुख बिसरमा सुख कीया विश्राम ।।
वैरी उलटि भया हैं मींता,साषत उलटि मजन भये चीता ॥
आपा जांनि उलटि ले आप,तौ नहीं ब्यापै तीन्यूं ताप ।। .
अब मन उलटि सनातन हूवा,तब हम जांनां जीवत मूवा ॥
कहै कबीर सुख सहज समाऊं,आप न डरौं न और डराऊं।१५॥

संतौ भाई आई ग्यांन की आंधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उडांणीं,माया रहै न बांधी ॥ टेक ॥
हिति चत की द्वै धूंनी गिरांनीं,मोह बलींडा तूटा।
त्रिस्नं छांनि परी धर ऊपरि,कुबधि का भांडा फूटा ॥
जोग जुगति करि संतौं बांधी,निरचू चुवै न पांणीं ।
कूड़ कपट काया का निकस्या,हरि की गति जब जांणीं ।।
आंधी पीछैं जो जल बूठा,प्रेम हरी जन भींनां ।
कहै कबीर भांन के प्रगटें',उदित भया तम षींनां ॥ १६ ॥