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कबीर-ग्रंथावली

 
 जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ ।
घर जाजरौ बलीडौ टेढौ,औलाती उर राइ ।। टेक ।।
मगरी तजौं प्रीति पाषें सुं,डांडीं देहु लगाइ ।
छींकौ छोडि उपरहि डौ बांधौ,ज्यूं जुगि जुगि रहौ समाइ ॥
बैसि परहडी द्वार मुंदावौ,ल्यावों पूत घर घेरी।
जेठी धीय सासरै पठवौं,ज्यूं बहुरि न आवै फेरी ।।
लहुरी धीइ सबै कुल खोयौ,तब ढिग बैठन पाई।
कहै कबीर भाग बपरी कौ,किलि किलि सबै चुकांई ।। २२ ।।

 मन रे जागत रहिये भाई।
 गाफिल होइ वसत मनि खोवै,चोर मुसै घर जाई ।। टेक ।।
षट चक्र की कनक कोठड़ी,बस्त भाव है सोई ।
ताला कूंची कुलफ के लागं,उघड़त बार न होई ।।
पंच पहरवा सोइ गये हैं,बसतैं जागण लागी ।
जुरा मरण व्यापै कुछ नांहीं,गगन मंडल लै लागी ।।
करत बिचार मनहीं मन उपजी,नां कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा,रांम रतन धन पाया ॥ २३ ॥

 चलन चलन सबको कहत है,नां जानौं बैकुंठ कहां है ।टेक।।
जोजन एक प्रमिति नहीं जानैं,बातनि हीं बैकुंठ वषानैं ।
जब लग है बैकुंठ की आसा,तब लग नहीं हरि चरन निवासा ॥
कहें सुनें कैसैं पतिअइये,जब लग तहाँ पाप नहीं जइये ॥
कहै कबीर यहु कहिये काहि,साध संगति बैकुंठहि आहि।। २४ ॥

अपनें बिचारि असवारी कीजै,सहज कै पाइडै पाव जब दीजै।टेक।।
दे मुहरा लगांम पहिरांऊं,सिकली जीन गगन दौराऊं ।।
चलि बैकुंठ तोहि लै तारौं,थकहित प्रेम ताजनैं मारूं॥
जन कबीर ऐसा असवारा,बेद कतेब दहूँ थैं न्यारा ॥२।‌।