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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१८४

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कबीर-ग्रंथावली

अच्यंत च्यंत ए माधी,सो सब मांहिं समानां ।
ताहि छाडि जे पनि भजत हैं,ते सब भ्रमि भुलांना ।टेक।।
ईस कहै मैं ध्यान न जांनूं,दुरलभ निजं पद मोहीं ।
रंचक करूणां कारणि केसौ,नांव धरण कौं ताहीं ।।
कहै धौं सबद कहां थें आवै,अरू फिरि कहाँ समाई ।
सबद अतीत का मरम न जानैं,भ्रंमि भूली दुनियाई ॥
प्यंड मुकति कहां ले कीजै,जौ पद मुकति न होई ।
पांडैं.मुकति कहत हैं मुनि जन,सबद अतीत था सोई ।।
प्रगट गुपत गुपत पुनि प्रगट,सो कत रहै लुकाई ।
कबीर परमानंद मनाये,अकथ कथ्यौ नहीं जाई ॥ ३६ ।।

सो कछू बिचारहु मंडित लोई,
जाकै रूप न रेष बरण नहीं कोई ।। टेक ।।
उपजै प्यंड प्रांन कहां थैं आवै,मृवा जीव जाइ कहां समावै ॥
द्री कहां करहि विश्रांमां,सौ कत गया जो कहता रांमा ।।
पंचतत तहां सबद न स्वादं,अलष निरंजन विद्या न बादं ।।
कहै कबीर मन मनहि समानां,तब पागम निगम झूठ करि जानां३७

जौ पैं बीज रूप भगवाना,
तौ पंडित का कथिसि गियाना ॥टेक॥
नहीं तन नहीं मन नहीं अहंकारा,नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥
विष अमृत फल फले अनेक,बेद रु बोधक हैं तरु एक ॥
कहै कबीर इहै मन माना,कहिधूं छूट कवन उरझाना ॥ ३८ ॥

पांडे कौंन कुमति तोहि लागी,
तूंं रांम न जपहि अभागी ॥ टेक ॥
बेद पुरांन पढत अस पांडे,खर चंदन जैसें भारा ।
रांम नांम तत समझत नांहीं,अंति पड़ै मुखि छारा ॥