सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
पदावली

बेद पढ्यां का यहु फल पांडे,सब घटि देखैं रांमां ।
जन्म मरन थैं तौ तूं छूटै,सुफल हूंहिं सब कांमां ॥
जीव बधत अरू धरम कहत हैा,अधरम कहाँ है भाई ।
आपन तौ मुनिजन है बैठे,का सनि कहौं कसाई ।।
नारद कहै ब्यास यौँ भाषै,सुखदेव पूछौ जाई ।
कहै कबीर कुमति तब छूटै,जे रहै। रांम ल्यौ लाई ॥ ३६॥
  पंडित बाद बदंते झूठा।
  रांम कहयां दुनियां गति पावै,षांड कह्यां मुख मीठा ॥टेक।।
पावक कह्यां पाव जे दाझै,जल कहि त्रिषा बझाई।
भोजन कहयां भूष जे भाजै,तौ सब कोई तिरि जाई ।
नर के साथि सूवा हरि बोलै,हरि परताप न जानै ।
जो कबहूं उड़ि जाइ जंगल मैं,बहुरि न सुरतैं आनै ।
साची प्रीति विषै माया सूं,हरि भगतनि सूं हासी । . .
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ,बाँध्यौ जमपुरि जासी ॥ ४० ॥
  जौ पैं करता बरण विचारै,
तै। जनमत तीनि डांडि किन सारै ॥ टेक ॥
उतपति ब्यंद कहां थैं आया,
  जोति धरी अरू लागी माया ।।


(४०)इसके अागे ख० प्रति में यह पद है-
   काहे कौं कीजै पांडे छोति बिचारा ।
   छोतिहीं तैं उपना सब संसारा ॥ टेक ॥
   हंमारै कैसें लोहू तुम्हारै कैसें दूध ।
   तुम्ह कैसें बांम्हण पांडे हंम कैसैं सूद ।।
   छोति छोति करता तुम्हहीं जाए ।
   तै। ग्रभवास कहें कौं आए ।।
   जनमत छोत मरत ही छोति ।
   कहै कबीर हरि की निमल जोति ॥४॥