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कबीर-ग्रंथावली

यहु संसार हाट करि जानूं,सबको बणिजण पाया।
चेति सकै सो चेतौ रे भाई,मूरिख मूल गंवाया ।।
थाके नैंन बैंन भी थाके,थाकी सुंदरं काया।
जांमण मरण ए द्वै थाके,एक न थाकी माया ॥
चेति चेति मेरे मन चंचल,जब लग घट मैं सासा ।
भगति जाव परभाव न जइयौ,हरि के चरन निवासा ॥
जे जन जांनि जषैं जग जीवन,तिनका ग्यांन न नासा ।
कहै कबीर वै कबहूं न हारैं,जांनि न ढारैं पासा ॥ २३५ ॥

  लावौ बाबा अागि जलावो घरा रे,
ता कारनि मन धंधै परा रे ।। टेक ॥
इक डाइनि मेरे मन में बसै रे,नित उठि मेरे जीय कौं डसै रे ॥
या डांइन्य के लरिका पांचरं,निस दिन मोहि नचावैं नाच रे ।।
कहै कबीर हूँ ताकौ दाम,डांइनि कै संगि रहै उदास ।।२३६।।

  बंदे ताहि बंदिगी सौं काम,हरि बिन जांनि और हरांम.।
  दूरि चलणां कूंच बेगा,इहां नहीं मुकांम ।। टेक ।।
इहां नहीं काई यार दोस्त,गांठि गरथ न दांम ।
एक एकै संगि चलणां,बीचि नहीं विश्रांम ।।
संसार सागर बिषम तिरणां,सुमरि लै हरि नांम ।
कहै कबीर तहाँ जाइ रहणां,नगर बसत निधांन ॥ २३७ ।।

  झूठा लोग कहैं घर मेरा।
  जा घर मांहै बोलै डोलै,सोई नहीं तन तेरा ।। टेक ॥
बहुत बंध्या परिवार कुटंब मैं,कोई नहीं किस केरा ।
जीवत आंषि मूंदि किन देखौ,संसार अंध अँधेरा ॥