पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४०

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कबीर-ग्रंथावली

'परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि ।
खिंथा जल कुइला भई तागे आँच न लागि ॥८८ ।।
परभाते तारे खिसहि त्यों इहु खिसै सरीरु ।
पै दुइ अक्खर ना खिसहि सो गहि रह्यो कबोरु ॥ ६॥
पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ।
राम सनेही बाहरा जमपुर मेरे भाइ ॥ ६१ ॥
पापी भगति न पावई हरि पूजा न सुहाइ ।
माखी चंदन परहरै जह बिगंध तह जाइ ।। ६२ ।।
कबीर पारस चंदनै तिन है एक सुगंध ।
तिहि मिलि तेउ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥६३।।
पालि समुद सरवर भरा पी न सके कोइ नीरु ।
भाग बड़े ते पाइयो तू भरि भरि पीउ कबीरु ॥४॥
कबीर प्रीति इकस्यो किए आनँद बद्धा जाइ ।
भावै लाँबे केस कर भावै घररि मुडाइ ।।६।।
कबीर फल लागे फलनि पाकन लागे अवि :
जाइ पहूँचै खसम को जौ बीचि न खाई कांव ॥१६॥
बाम्हन गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहि ।
अरझि उरमि के पच मुत्रा चारहु बेदहु माहि ।।६।।
कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छंक हजार।
हरुये हरुये तिरि गये डूबे जिन सिर भार ॥८॥
भली भई जौ भौ परया दिसा गई सब भूलि ।
ओरा गरि पानी भया जाइ मिल्यो ढलि कूलि ॥६॥
कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु।।
दावा काहू को नहीं बड़ो देश बड़ राजु ॥१००॥
भाँग माछुली सुरापान जो जो प्रानी खांहि ।
तीरथ बरत नेम किये ते सबै रसातल जाहि ॥१०१॥