पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(२५)

निकल पड़ा। कबीर ने चट उठकर उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि आप राम नाम का मंत्र देकर आज मेरे गुरु हुए हैं। रामानंदजी से कोई उत्तर देते न बना। तभी से कबीर ने अपने को रामानंद का शिष्य प्रसिद्ध कर दिया।

'काशी में हम प्रगट भये हैं रामानंद चेताए' कबीर का यह

वाक्य इस बात के प्रमाण में प्रस्तुत किया जाता है कि रामानंदजी उनके गुरु थे। जिन प्रतियों के आधार पर इस ग्रंथावली का संपादन किया गया है, उनमें यह वाक्य नहीं है और न ग्रंथ-लाहब ही में यह मिलता है। अतएव इसको प्रमाण मानकर इसके आधार पर कोई मत स्थिर करना उचित नहीं जंचता। केवल किंवदंती के आधार पर रामानंदजी को उनका गुरु मान लेना ठीक नहीं। यह किंवदंती भी ऐतिहासिक जाँच के सामने ठीक नहीं ठहरती। रामानंदजी की मृत्यु अधिक से अधिक देर में मानने से संवत् १४६७ में हुई,इससे १४ या १५ वर्ष पहले भी उसके होने का प्रमाण विद्यमान है। उस समय कबीर की अवस्था ११ वर्प की रही होगी; क्योंकि हम ऊपर उनका जन्म संवत् १४५६ सिद्ध कर पाए हैं। ११ वर्ष के बालक का घूम फिरकर उपदेश देने लगना सहसा ग्राह्य नहीं होता। और यदि रामानंदजी की मृत्यु संवत् १४५२-५३ के लगभग हुई तो यह किंवदंती झूठ ठहरती है; क्योंकि उस समय तो कबीर को संसार में आने के लिये अभी तीन चार वर्ष रहे होंगे ।

पर जब तक कोई विरुद्ध दृढ़ प्रमाण नहीं मिलते,तब तक हम

इस लोक-प्रसिद्ध बात को,कि रामानंदजी कबीर के गुरु थे बिल्कुल असत्य भी नहीं ठहरा सकते। हो सकता है कि बाल्यकाल में बार बार रामानंदजी के साक्षात्कार तथा उपदेश-श्रवण से ('गुरु के सबद मेरा मन लागा) अथवा दूसरों के मुँह से उनके गुण तथा