उपदेश सुनने से बालक कबीर के चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ गया
हो जिसके कारण उन्होंने आगे चलकर उन्हें अपना मानस गुरु
मान लिया हो। कबीर मुसलमान माता पिता की संतति हाँ
चाहे न हों, किंतु मुसलमान के घर में लालित पालिच होने पर भी उनका हिंदू विचार-धारा में प्राप्लावित्त होना उस पर बाल्यकाल
से ही किसी प्रभावशाली हिंदू का प्रभाव होना प्रदर्शित करता है।
हम भी पाहन पूजते होते बन के रोझ। सतगुरु की किरपा भई सिर सैं उतरया बोझ ॥
से प्रगट होता है कि अपने गुरु रामानंद से प्रभावित होने से पहले कबीर पर हिंदू प्रभाव पड़ चुका था जिससे वे मुसलमान कुल में परि-पालित होने पर भी "पाहन' पूजनेवाले हो गए थे । कबीर केवल लोगों के कहने से कोई काम करनेवाले नहीं थे। उन्होंने अपना सारा जीवन ही अपने समय के अंध विश्वासों के विरुद्ध लगा दिया था । यदि स्वयं उनका हार्दिक विश्वास न होता कि गुरु बनाना आवश्यक है,तो वे किसी के कहने की परवा न करते । किंतु उन्होंने स्वयं कहा है-
"गुरु बिन चेला ज्ञान न लहै।” "गुरु बिन इह जग कौन भरोसा काके संग है रहिए।"
परंतु वे गुरु और शिष्य का शारीरिक साक्षात्कार आवश्यक नहीं समझते थे। उनका विश्वास था कि गुरु के साथ मानसिक साक्षात्कार से भी शिष्य के शिष्यत्व का निर्वाह हो सकता है-।
"कबीर गुरु बसै बनारसी सिप समंदर तीर । विसरथा नहीं यीसरे जे गुण हाई सरीर ॥"
कबीर अपने आप में शिष्य के लिये आवश्यक गुणों का अभाव नहीं समझते थे। वे उन 'एक आध' में से थे जो गुरु के ज्ञान से अपना उद्धार कर सकते थे,जिनके संबंध में कबीर ने कहा है-