भावना भारतीय ब्रह्मभावना से सर्वथा मिलती है। जैसा कि कुछ .
लोग भ्रमवश समझते है, वे बाह्यार्थवाद-मूलक मुसलमान एकेश्वर-
वाद या खुदावाद के समर्थक नहीं थे। निर्गुण भावना भी उनके
लिये स्थूल भावना है जो मूर्तिपूजकों की सगुण भावना के विरोधी
पक्ष का प्रदर्शन मात्र करती है। उनकी भावना इससे भी अधिक
सूक्ष्म है। वे 'राम' को सगुण और निर्गुण दोनों से परे समझते हैं।
'अला एकै नूर उपनाया ताकी कैसी निंदा।
ता नूर थे सब जग कीया कौन भला कौन मंदा।'
यह मुसलमानों की ही तर्क-शैली का आश्रय लेकर 'खुदा के बंदो' और 'काफिरो' की एकता प्रतिपादित करने के लिये कहा जान पड़ता है, मुसलमानी मत के समर्थन में नहीं, क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है-
खालिक खलक, खलक में खालिक सब घट रह्यो समाई । जो भारतीय ब्रह्मभावना के ही परम अनुकूल है
कबीर केवल शब्दों को लेकर झगड़ा खड़ा करनेवाले नहीं थे। अपने भाव व्यक्त करने के लिये उन्होंने उर्दू, फारसी, संस्कृत आदि सभी शब्दों का उपयोग किया है। अपने भाव प्रकट करने भर से उन्होंने मतलब रखा है, शब्दों के लिये वे विशेष चित्रित नहीं दिखाई देते। ब्रह्म के लिये राम, रहीम, अल्ला, सत्य, बाम, गोव्यंद,साहब, आप आदि अनेक शब्दों का उन्होंने प्रयोग किया है। उन्होंने कहा भी है 'अपरंपार का नाउँ अनंत'। ब्रह्म के निरूपण के लिये शब्दों के प्रयोग में जो अत्यंत शुद्धता और सावधानी बहुत आवश्यक है, कबीर में उसे पाने की आशा करना व्यर्थ है, क्योंकि कबीर का तत्त्वज्ञान दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन का फल नहीं है, वह उनकी अनुभूति और सारग्राहिता का प्रसाद है। पढ़े लिखे तो वे थे ही नहीं, उन्होंने जो कुछ ज्ञान संचय किया, वह सब सत्संग और आत्मानुभव