पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६२

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काहे कौं कीजै पांडे छोति बिचारा । छोतिहि ते उपना संसारा ॥ हमारै कैसे लोहू तुम्हारे कैसैं दूध । तुम्ह कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद ।। छोति छोति करता तुम्हहीं जाए । तौ ग्रभवास काहे को श्राए । जनमत छोति मरत ही छोति । कहै कबीर हरि की निर्मल जोति ॥ जन्म ही से कोई द्विज या शूद्र अथवा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता। इसको कबीर ने कितने सीधे किंतु मन में जम जाने- वाले ढंग से कहा है--- जो तू बांभन बभनी जाया । तो भान बाट है क्यों नहिं आया । जो तू तुरक तुरकनी जाया। तो भीतर खतना क्यों न कराया। उच्चता और नीचता का संबंध उन्होंने व्यवसाय के साथ नहीं जोड़ा है, क्योंकि कोई व्यवसाय नीच नहीं है। अपने को जुलाहा कहने में भी उन्होंने कहीं संकोच नहीं किया और वे स्वयं आजीवन जलाह का व्यवसाय करते रहे। वे उन ज्ञानिये में से नहीं थे जो हाथ पाँव समेटकर पेट भरने के लिये समाज के ऊपर भार बनकर रहते हैं। वे परिश्रम का महत्त्व जानते थे और अपनी आजीविका के लिये अपने ही हाथों का आसरा रखते थे। परंतु अपनी आजीविका भर से वे मतलब रखते थे, धन संपत्ति जोड़ना वे उचित नहीं समझते थे। थोड़े ही में संतोष करने का उन्होंने उपदेश दिया है। जो कुछ वे दिन भर में कमाते थे, उसका कुछ अंश अवश्य साधु संतों की सेवा में लगाते थे, और कभी कभी तो सब कुछ उनकी सेवा में अर्पित कर डालते और आप निराहार रह जाते थे। कहते हैं, एक दिन वे गाढ़े का एक थान बेचने के लिये हाट गए। वस्त्र के प्रभाव से दुखी एक फकीर को देखकर उन्होंने उसमें से प्राधा उसे दे दिया। पर जब फकीर ने कहा कि मेरा तन ढकने के लिये यह काफी नहीं है, तब उन्होंने सारा उसे ही दे डाला और पाप खाली हाथ घर चले पाए । धन