पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६३

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धरती जोड़ना कबीर की संतोषी वृत्ति के विरुद्ध था। उन्होंने कहा भी है- काहे कूँ भीत बनाऊँ टाटी, का जांगूं कह परिहै माटी । काहे . मंदिर महल चिनाऊँ, मूवौं पीछे घड़ी एक रहन न पाऊं ॥ काहे . छाऊँ ऊँच उचेरा, साढ़े तीन हाथ घर मेरा । कहै कबीर नर गरव न कीजै, जेता तन तंती भुइँ लीजै ॥ कबीर अत्यंत सरल-हृदय थे। बालकों में सरलता की परा- काष्ठा होती है, यह सब जानते हैं। इसका कारण वर्ड सवर्थ के अनुसार यह है कि बालक में पारमार्थिकता अधिक रहती है। पर ज्योज्यों बालक की अवस्था बढ़ती जाती है त्यो त्यो उसमें पारमार्थिकता को न्यूनता होती जाती है। इसी लिये अपने खोए हुए बालकत्व के लिये वर्ड सवर्थ कवि क्षुब्ध हैं । परंतु कबार कहते हैं कि यदि मनुष्य स्वयं भक्ति भाव से अपने मन को निर्मल कर परमात्मा की ओर मुड़े तो वह फिर से इस सरलता को प्राप्त कर बालक हो सकता है- जो तन माहे मन धरै, मन धरि निर्मल होइ । साहिब सों सनमुख रहै, तो फिरि बालक होइ ॥ कबीर का सारल्य ऐसे ही बालकत्व का फल था। कबीर की गर्वोक्तियों के कारण लोग उन्हें घमंडी समझते हैं । . ये गर्वोक्तियाँ कम नहीं हैं। उनके नाम से प्रसिद्ध नीचे लिखा पद, जो इस ग्रंथावली में नहीं है, लोगों में बहुत प्रसिद्ध है- ___ झीनी झीनी बीनी चदरिया। काह के ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया। इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदस्यिा ॥ पाठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया। साँइ को सियत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया ॥ सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े, ओड़ के मैली कीनी चदरिया। दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दोनी चदरिया ।।