कबीर मन मधकर भया,रह्या निरंतर बास ।
कवल ज फूल्या जलह बिन,को देखै निज दास ॥ ६ ॥
अंतरि कवल प्रकांसिया,ब्रह्म बास तहाँ होइ ।
मन भवरा तहाँ लुबधिया,जांणौंगा जन कोइ ॥ ७ ॥
सायर नाही सीप विन,स्वांति बूंद भी नाहिं ।
कबीर मोती नीपजैं,सुन्नि सिषर गढ मांहि ॥ ८॥
घट मांहैं औघट लह्या,औघट मांहैं घाट ।
कहि कबीर परचा भया,गुरू दिखाई बाट ॥ ६ ॥
सूर समांणां चंद मैं,दहूं किया घर एक ।
मनका च्यंता तब भया, कळू पूरबला लेख ॥ १० ॥
हद छाड़ि बेहद गया,किया सुन्नि असनान ।
मुनि जन महल न पावई,तहाँ किया विश्राम ।। ११ ।।
देखौ कर्म कबीर का,कछु पूरब जनम का लेख ।
जाका महल न मुनि लहैं,सो दोसत किया प्रलेख ।। १२ ॥
पिंजर प्रेम प्रकासिया,जाग्या जोग अनंत ।
संसा खूटा सुख भया,मिल्या पियारा कंत ।। १३ ॥
प्यंजर प्रेम प्रकासिया,अंतरि भया उजास ।
मुखि कसतूरी महमहीं,बांणी फूटी बास ॥ १४ ॥
मन लागा उन मन्न सौं,गगन पहुँचा जाइ।
देख्या चंद बिहूँणां चांदिणां,तहाँ अलख निरंजन राइ ।।१५।।
मन लागा उन मन सौं,उन मन मनहि बिलग ।
लूंण बिलगा पाणियां,पाणी लूंण बिलग ॥ १६ ॥,
पांणीं ही तैं हिम भया,हिम कैगया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया,अब कछु कह्या न जाइ ॥ १७ ॥
(1) क-औघट पाइया।
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९७
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