पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९८

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कबीर-ग्रंथावली

भली भई जु भै पड्या, गई दसा सब भूलि ।
पाला गलि पाणी भया, दुलि मिलिया उस कूलि ॥ १८ ॥
चौहटै च्यंतामणि चढ़ी, हाडी मारत हाथि ।
मीरां मुझसूं मिहर करि, इब मिलों न काहू साथि ॥ १६ ।।
पंषि उडाणी गगन कू, प्यंड रह्या परदेस ।
पाणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस ॥ २० ॥
पंषि उडानी गगन कुं, उड़ो चढ़ी असमान ।
जिहिं सर मंडल भेदिया, सो सर लागा कान ॥ २१ ॥
सुरति समांणी निरति में, निरति रही निरधार ।
सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार ॥ २२॥
सुरति समांणी निरति मैं, अजपा मांहैं जाप ।
लेख समांणां अलेख मैं, यूं आपा माहैं आप ॥ २३ ।।
आया था संसार मैं, देषण को बहु रूप ।
कहै कबीरा संत है।, पड़ि गया नजरि अनूप ॥ २४ ॥
अंक भरे भरि भेटिया, मन मैं नांही धीर ।
कहै कबीर ते क्यूं मिलें, जब लग दोइ सरीर ॥ २५ ।।
सचुपाया सुख अपनां, अरु दिल दरिया पूरि ।
सकल पाप सहजै गये, जब माई मिल्या हजूरि ।। २६ ॥
धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा। .
नव हरि हरि के जन होते, कहै कबीर बिचारा ॥ २७ ॥
जा दिन कृतमनां हुता, होता हट न पट ।
हुता कबीरा राम जन, जिनि देखै औघट घट ।। २८ ।।
थिति पाई मन थिर भया, मतगुर करी सहाइ ।
अनिन कथा तनि अाचरी, हिग्दै त्रिभुवन राइ ॥ २६ ।।
(२६) ख-सकल अघ