पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०१

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( ९५ ) सोई मेरा एक तू और न दूजा कोय । जो साहव दुजा कहै दूजा कुल को होय ॥ ९ ॥ सर्गुण की सेवा करौ निर्गुण का करु ज्ञान । निर्गुण सर्गुण के परे तहैं हमारा ध्यान ॥१०॥ शक्तिमत्ता साहेव से सब होत है वंदे ते कछु नाहिं । राई ते पर्वत करे पर्वत राई माहि ॥ ११ ॥ वहन वहंता थल करै थल कर वहन वहोय । साहेव हाथ वड़ाइया जस भात्रै तस होय ॥ १२॥ साहेच सा समरथ नहीं गरुवा गहिर गंभीर । औगुन छोड़े गुन गहे छिनक उतारै तीर ॥ १३ ॥ जो कुछ किया सो तुम किया मैं कछुकीया नाहिं। कहो कहीं जो मैं किया तुम ही थे मुझ माहिं ॥१४॥ जाको राखे साँइयाँ मारि न सक्कै कोय । बाल न वाँका करि सकै जो जग वैरी होय ॥ १५ ॥ साँई मेरा वानिया सहज करै व्यापार । विन डाँड़ी विन पालरे ताले सब संसार ॥ १६ ॥ साँई तुझसे वाहिरा कौड़ी नाहिं विकाय । जाके सिर पर धनी तू लाखों मोल कराय ॥ १७ ॥ सर्वघट व्यापकता तेरा साँई तुझ में ज्यों पुहुपन में वास । कस्तूरी का मिरग ज्यों फिर फिर ढूँढ़े घास ॥ १८ ॥