पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०४

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( ९८ ) जसो माया मन रम्यो तैसो नाम रमाय । तारा मंडल वेधिकै तब अमरापुर जाय ॥ ४३ ॥ पावक रूपी नाम है सब घट रहा समाय । चित चकमक लागै नहीं धूआँ है है जाय ॥ ४४ ॥ नाम विना वेकाम है छप्पन कोटि बिलास । का इंद्रासन वैठिबो का वैकुंठ निवास ॥ ४५ ॥ लूटि सके तो लूटि ले सत्त नाम की लूटि। पाछे फिरि पछताहुगे प्रान जाहिं जव छूटि ॥ ४६ ॥ शून्य मरै अजपा मरै अनहद हू मरि जाय । राम सनेही ना मरै कह कवीर समुझाय ॥ ४७ ॥ परिचय लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल । 'लाली देखन में गई मैं भी हो गइ लाल ॥ ४८ ॥ जिन पावन भुइँ बहु फिरे घूमे देस बिदेस । पिया मिलन जव होइया आँगन भया विदेस ॥ ४९ ॥ उलटि सामना आप में प्रगटी जोति अनंत । साहेव सेवक एक सँग खेलें सदा वसंत ॥ ५० ॥ जोगी हुआ झलक लगी मिटि गया ऐंचा तान । उलटि समाना आप में हूआ ब्रह्म समान ॥ ५१ ॥ नोन गला पानी मिला वहुरि न भरिहै गौन । सुरत शब्द मेला भया काल रहा गहि मौन ॥ ५२॥ कहना था सो कह दिया अव कछु कहा न जाय । एक गया दूजा रहा दरिया लहर समाय ॥ ५३ ॥ उनमुनि से मन लागिया गगनहिं पहुँचा जाय । चाँद विहना चाँदना अलख निरंजन राय ॥ ५४॥