पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०५

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मेरी मिटी मुक्ता भया पाया अगम निवास । अब मेरे दूजा नहीं एक तुम्हारी आस ॥ ५५ ॥ सुरति समानी निरति में अजपा माहीं जाप। लेख समाना अलख में श्रापा माहीं आप ॥ ५६ ॥ पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान । कहिवे की शोभा नहीं देखे ही परमान ॥ ५७ ॥ पिंजर प्रेम प्रकासिया अंतर भया उजास । सुख करि सूती महल में वानी फूटी वास ॥ ५८ ॥ पाया था संसार में देखन को बहु रूप। कहै कवीरा संत हो परि गया नजर अनूप ॥ ५९॥ पाया था सो गहि रहा रसना लागी स्वाद । रतन निराला पाइया जगत टटोला वाद ॥ ६०॥ कविरा देखा एक अँग महिमा कही न जाय । तेजपुंज परसा धनी नैनों रहा समाय ॥ ६१ ॥ गगन गरजि वरसै अमी वादल गहिर गंभीर । 'चहुँ दिसि दमकै दामिनी भीजै दास कवीर ॥ ६२॥ दीपक जोया ज्ञान का देखा अपरं देव । चार वेद की गम नहीं जहाँ कवीरा सेव ।। ६३ ।। अव गुरु दिल में देखिया गावन को कछु नाहिं । 'कविरा जव हम गावते तव जाना गुरु नाहि ॥ ६ ॥ मान सरोवर सुगम जब हंसी केलि कराय। मुकताहल मोती चुगै अव उड़ि अंत न जाय ॥ ६५ ॥ सुन्न मँडल में घर किया वाजै शब्द रसाल । रोम रोम दीपक भया प्रगटे दीनदयाल ॥ ६६ ॥ सुरत उड़ानी गगन को चरन विलंवी जाय । -सुख पाया साहेब मिला आनँद उर न समाय ॥ १७ ॥