पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०६

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(१०० ) पोनी ही ते हिम भया हिम ही गया विलाय । कविरा जो था सोइ भया अव कछु कहा न जाय ॥ ६८॥ सुन्न सरोवर मीन मन नीर तीर सब देव । सुंधा सिंधु सुख विलस ही बिरला जाने भेव ॥ ६९ ॥ मैं लागा उस 'एक से एक भया सव माहि। सव मेरा मैं सबन का तहाँ दूसरा नाहिं ॥ ७० ॥ गुने इंद्री सहजै गए सतगुरु करी सहाय । घट में नाम प्रगट भया वकि वकि मरै वलाय ॥ ७१ ॥ कविरा भरम न भाजिया वहु विधि धरिया भेख । साँई के. परिचयं विना अंतर रहियो रेख ॥ ७२ ॥ अनुभव श्रातम अनुभव ज्ञान की जो कोइ पूछ वात ।' 'सो गूंगा गुड़ खाइ कै कहै कौन मुख स्वाद ॥ ७३ ॥ ज्यों गूंगे के सैन को गूंगा ही पहिचान । त्यों ज्ञानी के सुक्ख को ज्ञानी होय सो जान ॥ ७४.॥ कागद लिखै सो कागदी की ब्योहारी जीव । प्रातम दृष्टि कहाँ लिखै जित देखै तित पीव ॥ ७५ ॥ लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी वात । दुलहा दुलहिन मिल गए फीकी पड़ी वरात ॥ ७६ ॥ भरो होय सो रीतई रीतो होय भराय । रीतो भरो न पाइए अनुभव सोइ कहाय ॥ ७॥