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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०८

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( १०२ ) देखा देखी भक्ति का कबहुँ न चढ़सी रंग। विपति पड़े यों छाँड़सी ज्यों केंचुली भुजंग ॥ ८७ ॥ ज्ञान संपूरन ना भिदा हिरदा नाहिं जुड़ाय । देखा देखी भक्ति का रंग नहीं ठहराय ॥ ८८॥ खेत बिगायो खरतुत्रा सभा बिगारी कूर। , भक्ति विगारी लालची ज्यों केसर में धूर । ८९ ।। कामी क्रोधी लालची इन ते भक्ति न होय । भक्ति करै कोइ सूरमा जाति बरन कुल खोय ॥ ९०॥ जल ज्यों प्यारा माछरी लोभी प्यारा दाम । माता प्यारा वालका भक्त पियारा नाम ॥ ९१ ॥ जब लगि भक्ति सकाम है तब लगि निस्फल सेव । कह कवीर वह क्यों मिलै निःकामी निज देव ॥ ९२ । भक्ति गेंद चौगान की भात्रै कोइ ले जाय । कह कवीर कछु भेद नहिं कहा रंक कह राय ॥ ९३ ॥ लव लागी तव जानिए छूटि कयूँ नहिं जाय । जीवत लव लागी रहै मूए तहँहिं समाय ॥ ९४ ॥ लगी लगन छूट नहीं जीभ चेांच जरिजाय । मीठा कहा अँगार में जाहि चकोर चवाय ॥ ९५ ॥ सोओं तो सुपने मिलै जागी तो मन माहिं । लोयन राता सुधि हरी विठुरत कबहूँ नाहिं ॥ ९६ ॥ तूं तूं करता तूं भया तुझ में रहा समाय । तुझ माहीं मन मिलि रहा अव कहुँ अनतन जाय ॥ ९७ ।। अर्व खर्व लौं दर्ष है उदय अस्त लौं राज । भक्ति महातम ना तुले ये सव कौने काज ॥ ९८॥ अंध भया सव डोलई यह नहि करै विचार । हरिभक्ती जाने विना वूड़ि मुत्रा संसार ॥ ९९ ।।