पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१०९

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( १०३ ) और कर्म सव कर्म है भक्ति कर्म निष्कमे । कहै कवीर पुकारि के भक्ति करो तजि धर्म ॥१०॥ प्रेम यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहि । सीस उतारै भुई धरै तव पेठे घर माहिं ॥१०॥ सीस उतारै भुई धरैः ता पर राखै पाव । दास कवीरा यों कहै ऐसा होय तो श्राव ॥१०२।। प्रेम न वाड़ी ऊपजै प्रेम न हाट विकाय । राजा परजा जेहि रुचै सीस देइ ले जाय ॥१०३।। प्रेम पियाला जो पियै सीस दच्छिना देय । लोभी सीस न दे सकै नाम प्रेम का लेय ॥१०४॥ छिनहिं चढ़े छिन ऊतरै सो तो प्रेम न होय । अघट प्रेम पिंजर वसै प्रेम कहानै सोय ॥१०५।। जव मैं था तव गुरु नहीं अव गुरु हैं हम नाहिं। प्रेम गली अति साँकरी तामें दो न समाहिं ॥१०६।। जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान मसान । जैसे खाल लोहार की साँस लेत विनु प्रान ॥१०७॥ उठा वगूला प्रेम का तिनका उड़ा अकास । तिनका तिनका से मिला तिनका तिनके पास ।।१०८।। सौ जोजन साजन वसै मानो हृदय मैंझार । कपट सनेही आँगने जानु समुंदर पार ॥१०९।। यह.तत वह तत एक है एक प्राण दुइ गात । अपने जिय से जानिए मेरे जिय की वात ॥१०॥ हम तुम्हरोसुमिरन कर तुममोहिं चितवौनाहिं। सुमिरन मन की प्रीति है सो मन तुमही माहि ॥११॥