पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ११३ ) जैसा हूँढ़त मैं फिरौं तैसा मिला न कोय । ततवेता तिरगुन रहित निरगुन से रत होय ।।२२२।। सहि दूध पिलाइए सोई विष है जाय । ऐसा कोई ना मिला आपे ही विप खाय ।।२२३।। जिन हूँढ़ा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठि । मैं वपुरा वूड़न डरा रहा किनारे वैठि ।।२२४।। हेरत हेरत हेरिया रहा कवीर हिराय। बुंद समानी समुंद में सो कित हेरी जाय ॥२२५।। एक समाना सकल में सकल समाना ताहि । कविर समाना बूझ में तहाँ दूसरा नाहिं ।।२२६।। दुबिधा हिरदे माहीं पारसी मुख देखा नहिं जाय । मुख तौ तवहीं देखई दुविधा देइ वहाय ॥२२७॥ पढ़ा गुना सीखा सभी मिटा न संसय सूल । । कह कवीर कासों कहूँ यह सव दुख का मूल ॥२२८।। चींटी चावल ले चली विच में मिलि गइ दार। कह कवीर दोउ ना मिलै एक ले दूजी डार ।।२२९।। सत्त नाम कडुवा लगै मीठा लागे दाम । दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम ।।२३०॥ कथनी और करनी कथनी मीठी खाँड़ सी करनी विष की लोय । कथनी तजि करनी करै विष से अमृत होय ।।२३।।