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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११८

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(११२ ) पारस रूपी जीव है, लोह रूप. संसार ।' पारस ते पारस भया परख भया संसार ॥२१०।। अमृत केरी पूरिया बहु विधि लीन्हें छोर । आप सरीखा जो मिले ताहि पियाऊँ घोरि ।।२१।। काजर ही की कोठरी काजर ही का कोट । तौ भी कारो ना भई रही जो भोटाहिं ओट ॥२१२।। ज्ञान रतन की कोठरी चुप करि दीन्हों ताल । पारखि आगे खोलिए कुंजी वचन रसाल ॥२१३।। नग पखान जग सकल है लखि आवै सव कोइ । नग ते उत्तम पारखी जग में विरला कोइ ॥२१४।। बलिहारी तेहि पुरुप की पर चित परखनहार । साई दीन्हों खाँड़ को खारी बूझ गँवार ॥२१५।। हीरा वही सराहिए सहै घनन की चोट । कपट कुरंगी मानवा परखत निकसा खोट ॥२१६।। हरि हीरा जन जौहरी सवन पसारी हाट । जव आवै जन जौहरी तव हीरौ की साट ।।२१७॥ हीरा परा वजार में रहा छार लपटाय । वहुतक मूरख चलि गए पारखि लिया उठाय ।।२१८।। कलि खोटा जग आँधरा शब्द न मानै कोइ । जाहि कहीं हित श्रापना सो उठि वैरी होय ।।२१९।। जिज्ञासु पेला कोऊ ना मिला हमको दे उपदेस । भव सागर में इयता कर गहि काढ़े केस ।।२२०।। पना कोई ना मिला जासे रहिए लाग । सब जग जलता देखिया अपनी अपनी श्राग ।।२२।।