पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१२८

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( ११८ ) तीर तुपक से जो लड़े सो तो सूर न होय । माया तजि भक्ती करै सूर कहावै सोय ॥२७८।। पातिव्रत पतिवरता मैली भली काली कुचित कुरूप । पतिवरता के रूप पर वारों कोटि सरूप ॥२७९।। पतिवरता पति को भजै और न आन सुहाय । सिंह वचा जो लंघना तो भी घास न खाय ।।२८०।। नैनों अंतर श्राव तु नैन झाँपि तोहि लेव । ना मैं देखों और को ना तोहि देखन देव ॥२८॥ कविरा सीप समुद्र की रटै पियास पियास । और वृंद को ना गहै स्वाति बूँद की आस ।।२८२।। पपिहा का पन देखकर धीरज रहै न रंच । मरते दम जल में पड़ा तऊ न बोरी चंच ।।२८३।। सुंदर तो साँई भजे तजै पान की आस । ताहि न कबहूँ परिहरै पलक न छाँड़े पास ||२८|| चढ़ी अखाड़े सुंदरी माँडा पिव सो दल । दीपक जोया ज्ञान का काम करें या तेल ।।२८५।। सूग के तो सिर नहीं दाता के धन नाहि । पतिवरता के तन नहीं मुरति बसें मन माहि ।।२८।। पतिवरता मैली भली गले काँच का पोत । सब सखियन में या दिप ज्यां रविससि की जान 1२८७। पतिवरता पति को भज पति पर घर विश्वास । आन दिसा चित नहीं नदा पाय को श्रास ॥२८८।। नाम न रटा तो क्या पुत्रा जो अंतरहिन । पतियरता पति को भज मुम्ब से नाम न संत ।।२८।। .