पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३०

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( १२० ) सव धरती कागद कीं लेखनि सब वनराय । सात समुंद की मसि करूँ गुरु गुन लिखा न जाय ।३०। तन मन ताको दीजिए। जाके विषया नाहि । पापा सवहीं डारिकै राखै साहेव माहि ।।३०३।। तन मन दिया तो क्या हुया निज मन दिया न जाय । कह कवीर ता दास सों कैसे मन पतियाय ॥३०॥ गुरु सिकलीगर कीजिए मनहिं मस्कला देय । मन की मैल छुड़ाइ कै चित दरपन करि लेय ॥३०५|| गुरु धोवी सिप कापड़ा सावुन सिरजनहार । सुरति सिला पर धोइए निकसै जोसि अपार ॥३०६। गुरु कुम्हार सिप कुंभ है गढ़ गढ़ फाढ़े खोट । अंतर हाथ सहार दे वाहर बाहै चोट ।।३०।। कविरा ते नर अंध है गुरु को कहते श्रीर। हरि रुटै गुरु टौर है गुर रूटे नहिं टोर ॥ ३०८।। गुरु हैं बड़े गोविंद ने मन में देग्यु विचार । हरि सुमिर सो चार है गुरु मुमिरे सो पार ॥३०॥ गुरु पारंस गुरु परस है चंदन बास सुवास । सतगुरु पारस जीव को दीन्हा मुक्ति निवास ॥३०॥ पंडित पढ़ि गुन पचिमुए गुणविन मिल न मान । मान विना नहि मुक्ति है सत्त शब्द परमान ॥३॥ नीन लोक नो खंड में गुरु ते बड़ा न फोड। करता करन करि सर्व गुरु करे मो हो ॥३॥ कविरा हरि के न्टने गुन के मरने जाय । कह कर गुमटते गिनहिं होन महाया बन्नु काही काही काहि विधि आर्य हाय। का पीरनर पाप भेदी मी माया