पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३२

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( १२२ ) संतजन साध बड़े परमारथी धन ज्यों चरसे श्राय । तपन वुझावें और की अपनो पारस लाय ॥३२६॥ सिंहों के लेहँड़े नहीं हंसों की नहिं पात । लालों की नहिं वोरियाँ साध न चलें जमात ||३२७।। सब धन तो चंदन नहीं सूरा का दल नाहि । सच समुद्र मोती नहीं यों साधू जग माहिं ||३२८।। साध कहावत कठिन है लंवा पेड़ खजूर । चढ़े तो चाखे प्रेमरस गिरें तो चकनाचूर ।।३२९।। गाँटी दाम न बाँधई नहि नारी से नेह । कह कीर ता साध की हम चरनन की यह ॥३३०।। यच्छ कबहुँ नहिं फल भखें नदीन संच नीर । परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर ॥३३॥ साधु साधु सब ही बड़े अपनी अपनी टौर। शब्द विवेकी पारखी ते माथे के मोर ३३२॥ साधु साधु सब एक है ज्यों पोस्त का गंन । कोई विवेकी लाल है नहीं संत का सेन ||३३३॥ निराकार की प्रारती साधी ही की दो। लग्या जो बाद अलख को नहीं में लबिलह ।।३।। कोई श्राचे भाव ले कोई श्राय श्रभार । साध दोऊ को पारतं गिनं न भाय अमात्र ।।३३|| नशानल गंदना दिम नहिं जानल हाय । पविग शानल मंगान नाम मनी मांग | | जानि न पूछो माथ पोपट गीतिए मान । मांग नरवार, हा पट्टी गाना म्यान ॥३३॥