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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३३

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संत न छोड़े संतई कोटिक मिलें असंत मलय भुवंगहि वेधिया सीतलता न तजंत ॥३३८।। साधू ऐसा चाहिए दुखै दुखावै नाहि । पान फूल छोड़े नहीं वसै वर्गाचा माहिं ॥३३९॥ साध सिद्ध वड़ अंतरा जैसे आम बवूल । वाकी डारी अमी फल याकी डारी सूल ॥३४०॥ हरि दरिया सूभर भरा साधो का घट सीप । तामें मोती नीपजै चढ़े देसावर दीप ॥३४१६ साधू भूखा भाव का धन का भूखा नाहिं । धन का भूखा जो फिरै सो तो साधू नाहिं ॥३४२॥ साधु समुंदर जानिए माहीं रतन भराय । मंद भाग मूठी भरै कर कंकर चढ़ि जाय ॥३४३॥ चंदन की कुटकी भलो नहिं ववूल लखराँव । साधन की झुपड़ी भली ना साकट को गाँव ॥३४४।। हरि सेती हरिजन बड़े समझि देखु मन माहिं। कह कवीर जग हरि विखे सो हरि हरिजन माहि ॥३४५६ जो चाहे साकार तू साधू परतछ देव । निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति से सेव ॥३४६।। पक्षापक्षी कारने सव जग रहा भुलान । निरपवै है हरि भजें तेई संत सुजान ॥३४७॥ समुझिझि जड़ है रहे चल तजि निर्बल होय । कह कवीर ता संत को पला न पकरै कोय ॥३४८॥ हद्द चले सो मानवा वेहद चले सो, साध । हद वेहद, दोनों तजै ताको मता "अगाध ॥३४९॥ सोना सज्जन साधु जन टूटि जुरै.सौ वार । दुर्जन कुंभ कुम्हार के एक धका दरार ॥३५०॥