पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३५

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( १२५ ) वाँवी कूट वावरे साँप न मारा जाय । मूरख वाँवी ना डसै सर्प सवन को खाय ।।३६३।। जो विभूति साधुन तजी तेहि विभूति लपटाय । जौन ववन करिडारिया स्वान स्वाद करि खाय ॥३६४॥ हम जाना तुम मगन हो रहे प्रेम रस पागि । रँचक पवन के लागते उठे नाग से जागि ।।३६५|| सजन तो दुर्जन भया सुनि काट्ट को वोल । काँसा ताँवा ढ रहा नहिं हिरराय का मोल ।।३६६॥ लोहे केरी नावरी पाहन गरुश्रा भार । सिर में विष की मोटरी उतरन चाहै पार ॥३६७॥ सकलौ दुरमति दूरि करु अच्छा जनम बनाउ । काग गवन बुधि छोड़ि दे हंस गवन चलिआउ ॥३६८ चंदन सर्प लपेटिया गंदन काह कराय। रोम रोम विष भीनिया अमृत कहाँ समाय ||३६९।। मलयागिरि के वास में वेधा ढाक पलास । वेना कवहुँ न वेधिया जुग जुग रहिया पास ॥३७॥ जहर जिमी दै रोपिया अमि सींचे सौ वार । कविरा खलकै ना तजै जामें जौन विचार ||३७१।। गुरू विचारा क्या करै शिष्यहि में है चूक । शब्द-वाण वेधे नहीं बाँस बजावै फूंक ॥३७२॥ सत्संग कविरा संगत साध की हरै और की व्याधि । संगत दुरी असाधं की आठो पहर उपाधि ॥३७३॥ कविरा संगत साधु की जौ की भूसी खाय । खीर खाँड़ भोजन मिलै सांकट संग न जाय ॥३७४।