पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५९

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( १४१ ) माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रम माहिं परंत । कोइ एक गुरु ज्ञान ते उबरे साधू संत ॥५५३।। कनक और कामिनी चलौं चलौं सव कोइ कहै पहुँचे विरला कोय । एक कनक औ कामिनी दुरगम घाटी दोय ।।५५४॥ नारी की झाँई परत अंधा होत भुजंग । कविरा तिनकी कौन गति नित नारी को संग ।।५५५।। पर नारी पैनी छुरी मति कोइ लामो अंग । रावन के दस सिर गए पर नारी के संग ।।५५६।। पर नारी पैनी छुरी विरला वाँचै कोय । ना वहि पेट सँचारिए सर्व सोन की होय ॥५५७॥ दीपक सुंदर देखि के जरि जरि मरै पतंग । वढ़ी लहर जो विषय की जरत न मोड़े अंग ॥५५८॥ साँप बीछि को मंत्र है माहुर झारे जात । विकट नारि पाले परी काटि करेजा खात ॥५५९॥' कनक कामिनी देखि कै तू मति भूल सुरंग । विठुरन मिलन दुहेलरा केंचुकि तजै भुजंग ।।५६०॥ मादक द्रव्य मद तो वहुतक भाँति का ताहि न जाने कोय । तन-मद मन-भद जाति-मद माया-मद सब लोय ॥५६॥ विद्या-मद औ गुनहुँ-मद राज-भद्द उनमद्दः । इतने मद को रद करै तवं पावै अनहद्द ॥५६२॥