पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५८

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( १४० ) माया माया छाया एक सी विरला जाने कोय । भगता के पीछे फिरै सनमुख भागे सोय ॥५४१॥ माया तो ठगनी भई ठगत फिरै सब देस। जा ठग या ठगनी ठगी ता ठग को श्रादेस ।।५४२।। कविरा माया रूखड़ी दो फल की दातार । खोबत खरचत मुक्ति भे संचत नरक दुधार ।।५४३।। माया तो है राम की मोदी सब संसार । जाको चिट्टी ऊतरी साई खरचन-हार ||५४४॥ माया संचे संग्रह वह दिन जाने नाहिं । सहस बरस का सब कर मर महरत माहिं ।।५४५।। कविरा माया मोहनी मोह जान मुजान । भागे हूँ टूट नहीं भरि भरि मार वान ||५४६।। माया के झक जग जर कनक कामिनी लागि । कह कबीर कम बाँचिह मई लपेटी श्रागि ॥५४७।। मैं जान हरि से मिलूं मी मन माटी पान । हरि विच डार अंतरा माया बड़ी पिचास ।।५४८॥ आँधी आई सान की ढही भरम की भीति । माया टाटरी उड़ि गई लगी नाम में प्रीति ।।५४२|| मीठा मय कार ग्यान है, विष लागे धाय । नीय न कोई पावनी मर्ष गंग मिट जाय ।।१५।। माया नम्बर विविधि का लाग्य विषय गंताप । माननना सपने नहीं फल फीका नन ताप ||५५।। जिनको माग दिया कमी ना कुरंग । दिन दिन यानी श्रागर्ग च मवाया रंग ।।५।।