( १४९ ) संसारोत्पत्ति प्रथमै समरथ आप रह दूजा रहा न कोय! दूजा केहि विधि ऊपजा पूछत है। गुरु सोय ॥६३८॥ तव सतगुरु मुख वोलिया सुकृत सुनो सुजान । आदि अंत की पारचै तोसों कहौं बखान ॥६३९।। प्रथम सुरति समरथ कियो घटमें सहज उचार । ताते जामन दीनिया सात करी विस्तार ॥६४०॥ दूजे घट इच्छा भई चित मनसा तो कीन्ह । लात रूप निरमाइया अविगत काहु न चीन्ह ॥६४१॥ तव समरथ के श्रवण ते मूल सुरति भै सार। शब्द कला ताते भई पाँच ब्रह्म अनुहार ॥६४२॥ पाँचौ पाँचौ अंड धरि एक एक माँ कीन्ह । दुइ इच्छा तहँ गुप्त हैं सो सुकृत चित दीन्ह ॥६४३॥ योग मया यकु कारने ऊजो अक्षर कीन्ह। , या अवगति समरथ करी ताहि गुप्त करि दीन्ह ॥६४४॥ श्वासा सोहं ऊपजे कीन अमी बंधान । आठ अंश निरमाइया चीन्हो संत सुजान ॥६४५॥ तेज अंड आचिंत्य का दीन्हीं सकल पसार । अंड शिखा पर बैठि के अधर दीप निरधार ॥६४६॥ ते अचिंत्य के प्रेम ते उपजे अक्षर सार । चारि अंश निरमाइया चारि वेद विस्तार ॥६४७॥ तव अक्षर का दीनिया नींद मोह अलसान । वे समरथ अविगत करी मर्म कोइ नहिं जान-||६४८॥ जब अक्षर के नींद गै द्वी सुरति निरवान। श्याम वरण इक अंड है सो जल में उतरान ॥६४९॥
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६७
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