गुणिया तो गुण को गहै निर्गुण गुणहिं धिनाय ।
वैलहिं दीजै जायफर क्या वूमै क्या खाय ||७३९।।।
खेत भला वीजौ भला वोइए मूटी फेर ।
काहे विरवा रूखरा या गुण खेतै केर ।।७४०।।
जंत्र वजावत हैं। सुना टूटि गए सब तार।
जंत्र विचारा क्या करै गयो वजावनहार ॥७४।।
औरन के समुझावते मुख में परिगो रेत ।
रासि विरानी राख ते खाए घर को खेत ।।७४२||
तकत तकावत तकि रहे सके न वेझा मारि।
सबै तीर खाली परे चले कमानी डारि ॥७४३।।
अपनी कह मेरी सुनै सुनि मिलि एकै होय ।
मेरे देखत जग गया ऐसा मिला न कोय ।।७४।।
देस देस हम वागिया ग्राम ग्राम की खारि।
ऐसा जियरा ना मिला जो ले फटकि पछोरि ॥७४५।।
वस्तु अहै गाहक नहीं वस्तु सो गरुवा मोल।
विना दाम को मानवा फिरै सो डामाडोल ।।७४६।।
सिंह अकेला वन रमै पलक पलक के दौर।
जैसा वन है आपना तैसा वन है और ॥७४७।।
बैठा है. घर भीतरै बैठा है. साचेत ।
जव जैसी गति चाहता तव तैसी मति देत ॥७४८
वना वनाया मानवा विना चुद्धि वेतूल।
कहा लाल लै कीजिए विना वास का फूल ।।७४९।।
आगे आगे दव वरै पीछे. हरियर होइ।।
वलिहारी वा वृच्छ की जर काटे फल हाइ७५०॥
सरहर पेड़ अगाध फल अरु बैठा है पूर ।
बहुत लाल पचिपचि मरे फल मीठा अरु दूर ||७५१||