पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७६

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( १५८ ) सव ही तरु तर जायके सव फल लीन्हों चीखि । फिर फिर माँगत कविर है दर्शन ही की भीखि ।।७५२।। कंचन भो पारस परसि बहुरि न लोहा होइ । चंदन बास पलास विधि ढाक कहै ना कोइ ।।७५३॥ भक्ति भक्ति सव कोइ कहै भक्ति न आई काज। जहँ को किया भरोसवा तहँ ते आई गाज ||७५४|| सुख को सागर मैं रचा दुख दुख मेलो पाव । तिथि ना पक आपना चलै रंक श्री राव ॥७५५।। लिखा-पढ़ी से परे सव यह गुण तजै न कोइ । सचै परे भ्रम-जाल में डारा यह जिय खोइ ।।७५६|| जैसी लागी और की तैसी निवहै थोरि । कौड़ी कौड़ी जोरि कै पूज्यो लच्छ करोरि ॥७५७॥ नव मन दूध बटोरि कै टिपका किया विनाश । दूध फाटि काँजी हुआ भया धीव का नाश ।।७५८।। मानुष तेरा गुण वड़ा माँस न आवै काज । हाड़ न होते आभरण त्वचा न वाजन वाज ॥७५९॥ प्रथमै एक जो हो किया भया सो बारह वाट । कसत कसौटी नाटिका पीतर भया निराट ॥७६०॥ फुलवा धार न ले सकै कहै सखिन से रोइ । ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों भारी होइ ॥७६१॥ पद गायै लवलीन है कटै न संसय फाँस। सवै पछोरै थोथरा एक बिना विश्वास ॥७६२॥ घर कवीर का शिखर पर जहाँ सिलिहिलीगैल । पाय न टिकै पिपालका खलक न लादे वैल ॥७६३॥ अपने अपने शीश की सवन लीन है मानि । हरि की वात दुरंतरी. परी न काहू जानि ॥७६४॥