( १५९ ) घाट भुलाना वाट विन भेष भुलाना कानि । जाकी माँड़ी जगद माँ सो न परा पहिचानि ॥७६५॥ ऊपर की दोऊ गई हिय की गई हेराय । कह कवीर चारिऊ गई तासों कहा वसाय ॥७६६॥ यती सती सव खोजहीं मनै न मानै हारि। बड़ बड़ वीर वचै नहीं कहहि कवीर पुकारि ॥७६७॥ एकै साधे सव सधै सव साधे सब जाय । जो तू सेवै मूल को फूलै फलै अघाय ॥ ७६८॥ साँई केरे वहुत गुन लिखे जो हिरदे माहि । पिऊँ न पानी डरपता मत वै धोए जाहिं ॥७६९॥ यार बुलाचे भाव से मो पै गया न जाय । धन मैली पिउ ऊजला लागि न सक्त पाँय ॥७७०॥ पपिहा पर को ना तजे तजै तो तन काज । तन छूटे तो कछु नहीं पर छूटे है लाज ॥७७१।। प्रेम प्रीति से जो मिले तासौं मिलिए धाय । अंतर राखै जो मिले तासों मिल वलाय ॥७७२।। खुलि खेली संसार में बाँधिन सक्के कोय । घाट जगाती क्या करै जो सिर वोझ न होय ॥७७३॥ सव काहू का लीजिये साँचा शब्द निहार । पच्छपात ना कीजिए कहै कवीर विचार ||७७४|| सन सँदूक मन रतन है चुपके दे हट ताल । . . गाहक विना न खोलिए पूँजी शब्द रसाल ॥७७५॥ जब दिल मिला दयाल से तव कछु अंतर नाहिं। पाला गलि पानी भया यों हरिजन हरि माहिं ।।७७६।। मो में इतनी शक्ति कहँ गाना गला पसार। चंदे को इतनी धनी पड़ा रहै दरवार ॥७७७॥
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